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Thursday, 14 January 2016

Srijan....सृजन: मकर संक्रांति- गुरुपर्व -लोहरी की शुभ कमाना

Srijan....सृजन: मकर संक्रांति- गुरुपर्व -लोहरी की शुभ कमाना: मकर संक्रांति -गुरुपर्व - लोढ़ी की समस्त देशवासियों को हार्दिक बधाई. गुड -तिल के लड्डू मिलें, खाएं -बाँटें प्रेम. पर्वों का सन्देश हैं, च...

मकर संक्रांति- गुरुपर्व -लोहरी की शुभ कमाना


मकर संक्रांति -गुरुपर्व - लोढ़ी की समस्त देशवासियों को हार्दिक बधाई.
गुड -तिल के लड्डू मिलें, खाएं -बाँटें प्रेम.
पर्वों का सन्देश हैं, चलें न गंदे गेम .
सद्भावी ,
डॉ.रघुनाथ मिश्र 'सहज

Wednesday, 13 January 2016

साहित्यमंडल, श्री नाथद्वारा में ५-६ जनवरी १६ को दो दिवसीय साहित्योत्सव

सहित्यमंडल, श्री नाथद्वारा में ५-६ जनवरी२०१६ को संपन्न, दो दिवसीय अखिल भारतीय साहित्योत्सव, जो दो साहित्य मनीषियों -श्री भारतेंदु बाबू हरिश्चंद (५ को) एवं सहित्यमंडल के संस्थापक श्री भगवती प्रसाद देवपुरा (६को) की पुन्यस्मृति को समर्पित था, में दोनों दिन विचार सत्र - रंगारंग सांस्कृतिक कार्यक्रम-पुरस्कार/ सम्मान समारोह- अखिल भारतीय कवि सम्मलेन आदि से सज्जित रहे.इनमें देश भर से सैकड़ों की संख्या में, प्रख्यात साहित्यकारों- पत्रकारों- फिल्मकारों- संपादकों-प्रकाशकों-समाजसेवियों-अनेक क्षेत्रों के विद्वानों कीउपस्थिति/ जीवंत भागीदारी अति उत्साह जनक रही.
आप के इस नाचीज दोस्त ने, कवि सम्मलेन की अध्यक्षता की- सम्मान/ पुरस्कार वितरित किया और सभी सत्रों में, जीवंत भागीदारी से सदन का स्नेह लूटा.
-डॉ.रघुनाथ मिश्र 'सहज'

डॉ.रघुनाथ मिश्र 'सहज' पर केन्द्रित शेशाम्रित के 'सहज' विशेषांक में 'आकुल' की प्रस्तुति


’सहज’ सहज हैं सहज से, कह देते हैं बात।
धारा-प्रवाह सहज से, कहने में निष्‍णात।
कहने में निष्‍णात, विषय कोई सा भी हो।
कहते हैं बेबाक, सदन कोई सा भी हो।
कविपुंगव ने काव्‍य, रचे वे ‘सहज’ सहज हैं।
मेरे हैं प्रिय दोस्‍त, बिलाशक ‘सहज’ सहज हैं।
2-
सागर सा व्‍यक्तित्‍व है, जोश अपार अथाह।
जनवादी आक्रोश का, बहता काव्‍य प्रवाह।
बहता काव्‍य प्रवाह, वाक्‍चातुर्य प्रबल है।
मणिकांचन संयोग, राजनीति में दखल है।
’आकुल’ है कृतकृत्‍य, ‘सहज’ सा साथी पाकर।
बदल दिया संसार, भरा गागर में सागर।
-डॉ.गोपाल कृष्ण भट्ट 'आकुल'

डॉ.रघुनाथ मिश्र 'सहज' के व्यक्तित्व - कृतित्व पर केन्द्रित 'सहज' विशेषांक में गोपाल क्रिसन भट्ट 'आकुल के दो कुण्डलिया छंद


’सहज’ सहज हैं सहज से, कह देते हैं बात।
धारा-प्रवाह सहज से, कहने में निष्‍णात।
कहने में निष्‍णात, विषय कोई सा भी हो।
कहते हैं बेबाक, सदन कोई सा भी हो।
कविपुंगव ने काव्‍य, रचे वे ‘सहज’ सहज हैं।
मेरे हैं प्रिय दोस्‍त, बिलाशक ‘सहज’ सहज हैं।
2-
सागर सा व्‍यक्तित्‍व है, जोश अपार अथाह।
जनवादी आक्रोश का, बहता काव्‍य प्रवाह।
बहता काव्‍य प्रवाह, वाक्‍चातुर्य प्रबल है।
मणिकांचन संयोग, राजनीति में दखल है।
’आकुल’ है कृतकृत्‍य, ‘सहज’ सा साथी पाकर।
बदल दिया संसार, भरा गागर में सागर।
-डॉ.गोपाल कृष्ण भट्ट 'आकुल'

मुक्त छंद कविता

मरण तयशुदा
मालूम सबको
क्यूँ घबराएँ
मरने से.
जो होना है
हो के रहेगा
कुछ न बदलना
डरने से.
कर्म सिर्फ हाथों में है
कर लें बेहतर से बेहतर
जो पाएंगे -जब पाएंगे
पाएंगे बस करने से.
करें सार्थक
छोड़ें आलस
होनापन बस
बन्ने से.
-डॉ.रघुनाथ मिश्र 'सहज


कुछ भी बनने से पहले सम्पूर्ण इंसान बनना जरूरी है. आध्यात्मिकता में अथवा भौतिक जगत में कितनी ही उन्नति क्यों न कर लें, लेकिन एक समग्र इंसान बने बिना, हमारी हर पहुँच अर्थहीन है.जिसे हम सुख समझते हैं और इंसानियत भूल, उसी में डूब जाते हैं, अंधे हो जाते हैं शेष दुनिया से, वही हमारे सारे दुखों की जड़ है. किताबें पढना -सिर्फ पढने के लिए और उनमें दी गयी शिक्षाओं को जीवन में नहीं उतारना -सूखी हड्डियां चबाने जैसा है.
(हमारे आध्यात्मिक गुरुदेव की नसीहतों का महत्वपूर्ण अंश )
-डॉ.रघुनाथ मिश्र 'सहज'

सन्देश -विवेकानंद जयंती पर दिनांक १२/०१/१६

आइए स्वामी विवेकानन्द की 154 वीं जयन्ती पर,देश-दुनिया को उनकी महान देन -शिक्छाओं को श्रद्धा से याद करते हुए आज के दिन की शुरुआत करें। कुल 30 वर्षों के जीवन ्काल में स्वामी जी हमें हजारों वर्षों के बराबर दे गए .
-डा०रघुनाथ मिश्र 'सहज'
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Srijan....सृजन: मेरा एक अभी उपजा मुक्तक:

Srijan....सृजन: मेरा एक अभी उपजा मुक्तक:: आज कुछ वक़्त,बदला सा लगे है. वह भला इंसान, पगला सा लगे है. आंख जैसी कल थी, वैसी है मगर, सूर्य का प्रकाश,धुंधला सा लगे है. @डा.रघुनाथ मिश...

डॉ.रघुनाथ मिश्र 'सहज के चुनिन्दा मुक्तक

बेटियों के भाग्य से, घर भर गया आनंद से.
दुर्भाग्य सर पर से टला, वह डर गया आनंद से.
जिन घरों में बेटियों ने, चैन की है सांस ली,
परिजनों का मन मुदित हो, तर गया आनंद से.
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लोढ़ी - सन्देश (मुक्तक)
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आज लोढ़ी पर्व को हम यूँ मनाएं.
प्यार की बगिया दिलों में हम सजाएँ.
नफरतों की फसल खेतों में न उपजे,
भेद - भावों के सभी गढ़- मठ ढहाएं.

           000
यदि रहना है सुखी दोस्तो, याद रखो अगला - पिछला.
यदि टिकना मानव मूल्यों पर,याद रखो अगला-पिछला.
निर्भर है खुद पर ही सारा, चाहे जैसे रह - जी लें ,
यदि खिलना चाहें फूलों सा,याद रखो अगला - पिछला.

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एक मुक्तक- अभी सृजित:
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सुप्रभात में सुप्रभात जैसा, शुभ - शुभ हो जाए.
मंजिल का राही चलकर, अपनी मंजिल पा जाए.
है मंगल कामना सभी के, हृदयों में हो प्रेम भरा,
भारत का जन- गण- मन, अपना हर खोया सुख पाए.

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आइए नववर्ष का, इस तरह अभिनन्दन करें।
छुद्र बातों में नहीं , भड़कें 'सहज' धीरज धरें।
आए हैं इस धरा पर हम, इक मनुज के रूप में,
शान से जिन्दा रहें और,शान से ही हम मरें।

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बिना कर्म परिणाम नहीं है.
बिन बदले आराम नहीं है.
उनका जीवन मरुथल सा है, 
जिनके साथ अवाम नहीं है. 

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-डॉ.रघुनाथ मिश्र 'सहज'

चुनिन्दा दोहे :मेरे गुरुदेव से

डॉ.रघुनाथ मिश्र 'सहज'  के  चुनिन्दा  दोहे :
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मेरे गुरुदेव से:
मेरे  जीवन   को   दिया,  ऐसा  इक   अवदान.
जीवन बोझ न रह गया, हुआ 'सहज' आसान.
गुरुवर तेरी कृपा से, अब धरती    -   आकाश.
जड़- चेतन-जल-थल सभी, हैं लगते मधुमास.
जीवन की कठिनाइयां, अब लगतीं   मनमीत.
क्रंदन पहले का  अभी, लगता सुन्दर    गीत.
हे  

मेरे गुरुदेव  तुम,    दो     ऐसा    वरदान.
क्रोध-मोह का नाश हो, सुख-दुख लगें समान.
गुरुवर तुमसे मांगता, शक्ति - बुद्धि और ज्ञान.
सेवा में सब कुछ जंचे,'सहज' मान- सम्मान.
-डॉ.रघुनाथ मिश्र 'सहज

Tuesday, 12 January 2016

देशवासियों को लोढ़ी की हार्दिक बधाई.
आज पूरा देश लोढ़ी पर्व धूम-धाम से मना रहा है. ये पर्व हमें सन्देश देते हैं कि हम इन्सान को इंसान के रूप में देखें और सभी को आपस में एक पारिवारिक सदस्य के रूप में व्यवहार करे.
लोढ़ी - सन्देश (मुक्तक)
000
आज लोढ़ी पर्व को हम यूँ मनाएं.
प्यार की बगिया दिलों में हम सजाएँ.
नफरतों की फसल खेतों में न उपजे,
भेद - भावों के सभी गढ़- मठ ढहाएं.
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डॉ.रघुनाथ मिश्र 'सहज'
 १३/०१/१६



'सहज' के ५ दोहे :
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अल्प आयु में चल बसे, दे जग को आनंद.
कहते जीतो प्रेम से , सही विवेकानंद.
नफरत से कुछ ना मिले, प्रेम जगत का सार.
कहा विवेकानंद ने, प्रेम जीवनाधार.
क्या लाये थे साथ औ, क्या जाएगा साथ.
सदाचरण -सद्कर्म ही, है बस असली पाथ.
चलो विवेकानंद से, लेलें हम कुछ सीख.
वर्ना अँधियारा घना, नहीं रहा कुछ दीख.
युग पुरुषों की परंपरा, है जग को वरदान.
दिया विवेकानंद ने, ऐसा ही अवदान.
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डॉ.रघुनाथ मिश्र 'सहज'