Followers

Thursday 8 August 2019

*गीत गुनगुनाएं*


*
तरह-तरह के फूल 
एक साथ -एक उपवन में 
तरह-तरह के लोग 
एक साथ-एक घर में 
तरह-तरह की जातियाँ 
गाँव-शहर-कस्बों में 
तरह- तरह के परिन्दे 
एक डाल-व्रिक्ष-देहरी पर 
मंदिर -मस्जिद -गुरुद्वारों की छतों पर कहाँ है इनमें फिरकापरस्ती 
कहाँ है इनमें विद्वेश 
कहाँ है इनमें तनाव 
क्यों नहीं सीखते- हम इनसे 
भाईचारा 
आपसी सहयोग
कौमी एकता
भ्रातृत्व
सेवा 
प्यार की फसल उगाएं 
ह्रिदयों का बाग लगाएं 
खुश रहें -खुश रक्खें 
आओ न मितवा
कोई गीत गुनगुनाएं 
जीवन को संगीत बनाएं 
समाज -देश-दुनियां को 
ऐसे सजाएँ*
*@
डा०रघुनाथ मिश्र 'सहज'
अधिवक्ता /साहित्यकार
सर्वाधिकार सुरक्षित

DrRaghunath Mishr Sahaj

*डॉ.रघुनाथ मिश्र ‘सहज’ के पसंदीदा/ चुनिन्दा दोहे*


बुरा भले ही मानिये, असल बदल नहिं पाय।
मैं से कितना चिपक लो, हरगिज साथ नजाय।

खुद की गलती मान ले,यदि गलती हो जाय।
यही सबक वह मन्त्र है, जिससे हृदय अघाय।

गर बदले की आग में, जलेँ रात-दिन आप।
निस्चित ही यह जान लेँ, मिट न सके सन्ताप।

कहीं कहकहों की धमक, है कहिं हाहाकार।
आओ चल कर देख लेँ, क्यों यह मारामार।

यह दुनिया है मदरसा, सीखें यहाँ अथाह।
गर दुनिया को पढ़ लिया, क्या कहने भइ वाह।

निर्मल मन से जीतिए,भारी-भरकम जंग।
सद्पुरुशों की सीख में, सच्चा जीवन ढंग।

मन मयूर थिरके कभी, हों तक़लीफें दूर।
'
सहज' कहो यह चाह है,या दिल चकनाचूर।

निरख तुझे सब मिल गया,जस खोया सम्मान।
ऐसा ही चलता रहा,तो न गिरेगा मान ।

*
आज नहीं तो फिर नहीं,कर लेँ दो-दो हाथ।*
*
मौसम का तेवर समझ,सोच कौन है साथ।*

नफ़रत बाहर काढिये,फिर अंदर सुखधाम।
बन असली मानव करो,सार्थक अपना नाम।

बिगुल बजा संघर्ष का,अरि न जाय अब भाग।
सदियों से हम सो रहे,अब तो जायें जाग।

तुम नदिया के पार हो,मैं हूँ खुद इस पार।
कोई फर्क़ नहीं प्रिये,नहीं घटेगा प्यार।

निकट सांझ आ ही गयी,जब जीवन की मीत।
गहो राह अब सृजन की,भूलो ग्स्या अतीत।

मन में है गाली मगर, जुबान मिसिरी युक्त।
'
सहज' वही संसार में, हैं असली अभ्युक्त।

पिछली 2018 की होली बाद 'सहज' के दोहे:
000
आई और चली गई, फिर होली इस बार।
होली तो होली मगर, उतरा नहीं खुमार।

आते हैं शिक्षा लिए,यूं ही सब त्योहार।
यह इंसानी फ़र्ज़ है, सीखें म्रिदु व्यवहार।

अगली होली के लिए, बने योजना खास।
नफ़रत -गुस्सा त्याग दें, दिल से मिटे मिठास ।

यह होली है कह गई,हम सबसे इक बात।
मेहनत करके खाइए, बदलेंगे हालात

चलें काम पर मन गया, होली -रंग व फाग।
'
सहज' नहीं कोई बचे,मन में काला दाग।

शुभ रात्रि मेंआप सभी, लेलें सुखद विश्राम।
कल प्रात: से ही मिले,रात्रि तलक सुखधाम।

झोपड़ियों में जिन्दगी,असल दिखे है आज।
सभ्य-'सहज' जिनको कहें, मंडराते जस बाज।
मन के नियमन से सदा,मिलती शक्ति अपार.
'
सहज' स्नेह अपनाइए,तब हो बेड़ा पार.
@
डॉ.रघुनाथ मिश्र 'सहज'
                                         000

*
अधिवक्ता /साहित्यकार*
*© COPYRIGHTS RESERVED*



विलोम शब्द मुक्तक : पालक /घालक


( १ )
पालक
000
माता - पिता श्रेष्ट हैं पालक.
यही असल में हैं संचालक.
'सहज' ऋणी इनके हम रहते,
भले बनें हम छिति-जल-पावक .

000

(२)
घालक
000
घालक नहीं बनें पालक के.
अड़चन नहीं बनें साधक के.
जीवन होगा निश्चित सार्थक,
'सहज' उद्धरण बन मानक के.

000

@डॉ.रघुनाथ मिश्र 'सहज'



आगमन हर्षोल्लास का -वर्षा

आगमन-हर्षोल्लास का:
000
कल रात
बड़ी मेहरबानी की
बारिश ने
रात भर गिरी
हर दिल में
आस भरी
अनवरत
अभी भी
जारी है
अब गर्मी पर
भारी है
चैन मिला
अंतस में
आनन्द का
चला सिलसिला
मिटा गिला
बेचैनी का
हिम पिघला
अनचाही -अनपेक्षित
तप्त धरा को चैन मिला
उष्मा का गुरूर हिला
छोटे बच्चे
बूढ़े-जवान
मर्द-औरत
निहार रहे हैं
आल्हाद से
लाड़-प्यार से
अबाध -बेझिझक
पड़ती बारिश को
कुछ छतरी लेकर
कुछ बेख़ौफ
खुले में सड़क पर
निकल आए हैं
कुछ गर्व से
टहल रहे हैं
आँगन में ही
उद्दंडों की टोली
लड़के - लड़कियों की
पैदल-बाइक-साइकिलों पर
छोटी नदी का
रूप ले चुकी सड़क पर
अलमस्त
गीत गुनगुना रहे हैं
कुछ भुनभुना रहे हैं
कुछ
मन की सुना रहे हैं
लिख डाला मैने भी
अभी -अभी
उकेर दिया
ह्रिदय पटल पर
बारिश के आगमन के
इस अचानक हाथ लगे
हर्षोल्लास को
000
@
डा०रघुनाथ मिश्र 'सहज'


गीतिका


मात्राभार 32
पदांत विहीन
समान्त- आना
मेरी प्रिय गौरैया आओ मेरे आँगन में रोजाना.
परिजन इंतजार करते हैं छेड़ो कोई मधुर तराना.

परिजन सारे भूखे रहते जब तक तुम नहिं दर्शन देती,
मन आनंदित हो उठता है जब तुम लेती पानी- दाना.

आँगन सूना-सूना लगता तुम बिन सारे घर वालों को,
हमको नहीं कभी भाता है तुम बिन कुछ भी पीना-खाना.

तुम सदस्य बन गयी हो घर की ऐसा हमको लगता है',
रोज तुम्हें हम याद करेंगे आना कहीं भूल न जाना.

'सहज' तुम्हारे गीत सुहाते महकाते घर-आँगन को वे,
हम सबकी आदत में है अब साथ तुम्हारा हर पल पाना'.

000

@डॉ.रघुनाथ श्र 'सहज'
सर्वाधिकार सुरक्षित

अंतरध्वनि (मुक्तक)
            000
जी चाहे, जो कुछ कह लेना.
सीखा है, सब कुछ सह लेना.
'सहज' दिली ख्वाहिश है मेरी,
जैसा हूँ ,वैसा गह लेना.
@डॉ.रघुनाथ मिश्र 'सहज'
अधिवक्ता/साहित्यकार
सर्वाधिकार सुरक्षित