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Monday, 22 July 2013

gazalen

डा. रघुनाथ मिश्र  की दो गज़लें 
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देखा  कुदरत का ऐसा कहर ना  कभी. 
देखा  गुस्से  का  ऐसा असर ना  कभी. 

यूँ   तो  आना  व  जाना चला  ही  करे . 
देखा  होना  यूँ अंतिम  सफ़र ना कभी . 

मार डाले  न  छोड़े  किसी  भी   तरह.  
देखी  लहरों  में  ऐसी  लहर ना  कभी . 

लेखनी  लिख ग़ज़ल-गीत   ऐसे सदा . 
हों   मुखर भाव टूटे  बहर  ना   कभी . 

कुछ   करें   अब  असरदार यारो उठो . 
बद्विचारों  का  लिले  ज़हर  ना  कभी . 

हो 'सहज' ज़िन्दगी जी लें जीभर सभी . 
तू   बुराई  पे    हरगिज़ ठहर ना   कभी .  
                          000

सुनता   नहीं   कोई  है   बात क्या  कीजै . 
दुश्मन   लगा   रहा  है  घात क्या   कीजै . 

किसलय के पास आ रहा बसंत यकीनन . 
डाली   पे  पक  चुके  जो पात क्या   कीजै . 

चंद  मर  गए  अजीर्ण   से  है  समाचार में . 
गावों  में   भूख पर  उत्पात     क्या   कीजै . 

चुनाव आ गए हैं  सर पे  इस लिए  शायद . 
उठा   लिया   है अब  आपात  क्या  कीजै . 

कुदरत से थी तनातनी सदियों से चल रही . 
यकबयक        ये   बज्रपात   क्या      कीजै . 

वो  था  अतीत  लौट  कर  न आयेगा  कभी . 
आज  के  हैं  हाथ  में   हालात   क्या  कीजै . 
                             000
डा . रघुनाथ मिश्र 'सहज'



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