अक्ल बिकती नहीं बाज़ार में।
ज्ञान मिलाता नहीं उपहार में।
प्यार दिल में नहीं असली अगर,
ह्रदय स्वीकारता नहीं इज़हार में।
मस्तिष्क से संभव नहीं जो हो सका,
ह्रदय से हो गया संसार में।
भोर घायल दिखे ख़बरों में है,
दिखें बस नफरतें अख़बार में।
बनाने की मसक्कत है कठिन,
मज़े पर लो न बँटाढार में।
कौन कहता है चला करता नहीं,
सद्विचारों का असर व्यापर में।
(२)
क्षमता बड़ी खाकर पचाने की।
श्रद्धा नहीं चोरी बताने की।
लगा दें आप पूरी उम्र सेवा में,
आदत मिरी न कुछ गंवाने की।
बनाये या बिगाड़े देश कोई,
मिरी मंसा मुझे बनाने की।
अनेको मर मिटे आवाम पर,
मिरी आदत महज़ जन्चाने की।
नाचते होंगे उँगलियों पर कई ,
मिरी फितरत रही नाचने की।
जिंदगी भर के करम हैं सामने,
अक्ल पर आई नहीं पछताने की।
जा रहीं साँसें जंचाकर अंत में,
है घडी पापों की सजा पाने की।
-डा. रघुनाथ मिश्र 'सहज'
No comments:
Post a Comment