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Tuesday, 14 May 2013

गज़ल्

गज़ल:
प्रतिबन्धित सांसोँ से, कैसे जी पाऊंगा.
असंख्य ज़ख्मोँ को, कैसे मैँ सी पाऊगा.

ज़हर घुला है पानी मेँ, तय हो जाने पर,
शुद्ध नहीँ उपलव्ध, उसे भी पी जाऊंगा.

मनहूसी इस क़दर है पसरी, जीवन मेँ,
इस स्थिति मेँ कहाँ, सीत- गर्मी पाऊंगा.गज़ल:
प्रतिबन्धित सांसोँ से, कैसे जी पाऊंगा.
असंख्य ज़ख्मोँ को, कैसे मैँ सी पाऊगा.

ज़हर घुला है पानी मेँ, तय हो जाने पर,
शुद्ध नहीँ उपलव्ध, उसे भी पी जाऊंगा.

मनहूसी इस क़दर है पसरी, जीवन मेँ,
इस स्थिति मेँ कहाँ, सीत- गर्मी पाऊंगा.

जहाँ चापलूसोँ को ही, मिलती साबाशी,
खुद्दारी से मैँ कैसे, तरज़ी पाऊंगा.

सिमट् रहा हो प्यार जहाँ, चीजोँ जैसा,
वह व्यापक् कैसे, खुद की मर्ज़ी पाऊंगा.

मैनेँ जीना सीख लिया, खुद के जीवन से,
इसी लिये तक़लीफोँ मेँ भी, जी पाऊंगा.

जहाँ चापलूसोँ को ही, मिलती साबाशी,
खुद्दारी से मैँ कैसे, तरज़ी पाऊंगा.

सिमट् रहा हो प्यार जहाँ, चीजोँ जैसा,
वह व्यापक् कैसे, खुद की मर्ज़ी पाऊंगा.

मैनेँ जीना सीख लिया, खुद के जीवन से,
इसी लिये तक़लीफोँ मेँ भी, जी पाऊंगा.

        - डा. रघुनाथ मिश्र्

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