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Thursday, 16 May 2013

गज़ल: सोच ले तू किधर जा रहा है


सोच ले तू किधर जा रहा है:
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सोच ले तू किधर ज रहा है.
एक अज़ूबी ड्गर जा रहा है.
किसका जादू हुआ है युँ हावी,
तुझको मीठा ज़हर भा रहा है.
होता फौलाद है आदमी फिर,
रेत सा क्योँ बिखर जा रहा है.
तोड सक्ता है पत्थर जो सिर से,
हाँफता क्योँ नज़र आ रहा है.
नफरतोँ के ज़हर घोल दिल मेँ,
प्रेम पर क्योँ क़हर ढा रहा है.
ज़िंस की भांति बिकने की धुन मेँ,
तुझमेँ  कैसा न असर अ रहा है.
बस बना झुंझुना दूसरोँ का.
बेवज़ह जी के मर जा रहा है.
        000
  - डा. रघुनाथ मिश्र
(मेरी पुस्तक, 'सोच ले तू किधर जा रहा है' - हिन्दी- उर्दू गज़ल संग्रह से)

             

            

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