ग़ज़ल
है
असली सुंदरता भीतर.
कर
पैदा तत्परता भीतर.
कुदरत
की रचना बहुरंगी,
हो
तुझमें समरसता भीतर.
कुछ
भी बना-न बन पायेगा,
कायम
यदि बर्वरता भीतर.
इधर-उधर
है जिसे ढूढता,
जग
का पालनकर्ता भीतर.
कर
विश्वाश मिलेगा समुचित,
अर्जित
कर ले दृढ़ता भीतर.
बाहर
तों लेना-देना बस,
इन्सां
जीता-मरता भीतर.
क्या
देगी यात्रा बाहर की,
अंतर्मुखी
सफलता भीतर.
जीवन
मरुथल पाजाये मधु,
खुद
में भरे मधुरता भीतर.
पूरी
उम्र खुशी की खातिर,
भटका
बाहर-तड़पा भीतर.
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- डा. रघुनाथ मिश्र्
आप की रचना के भाव बड़े सुन्दर और प़ेरक हैं ।
ReplyDeleteaap ka sadar aabhar, SP Sudhesh ji.
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