बिछडे, हुए, ,मिलेँ, तो, गज़ल, होती, है.
खुशियोँ, के गुल खिलेँ, त गज़ल होती है.
वर्शोँ से हैँ, आलस्य के, नशे मेँ हम सभी,
पल, भर अगर हिलेँ तो गज़ल होती है.
होश मेँ आयेँ, अभी ,भी कुछ नहीँ बिगडा,
अब से सही चलेँ, तो गज़ल हो ती है.
जँगल- नदी- पहाड- डगर की रुकावटेँ,
ये हाथ गर मलेँ तो गज़ल होती है.
आसान नहीँ है, ये ज़िन्दगी बडी कठिन
,
हालात मेँ ढलेँ, तो गज़ल होती है.
अंतर है आदमी मेँ -जानवर मेँ इक बडा,
इंसाँ के रूप मेँ न हम, खलेँ तो गज़ल होती है.
- डा. रघुनाथ मिश्र
ग़ज़ल के साथ साथ आपके इस बहुत सुंदर ब्लॉग के लिए बधाई। ब्लॉग्स की दुनिया में आपका स्वागत है।
ReplyDeleteसादर आभार अआप की स्नेहिल दृष्टि को.
Deleteअंतर है आदमी मेँ -जानवर मेँ इक बडा,
ReplyDeleteइंसाँ के रूप मेँ न हम, खलेँ तो गज़ल होती है.
..बहुत सही कहा आपने ..
बढ़िया गजल
धन्यवाद भाई 'आकुल' और कविता रावत जी, आप के स्नेह और उत्साहवर्धन हेतु, जो मेरा साहित्यिक पथ और लक्ष्य आसान बनायेगा.
ReplyDeleteअप का ही,
डा. रघुनाथ मिश्र.
नमस्कार महोदय,
ReplyDeleteमैंने एक हिंदी साहित्य संकलन नामक ब्लॉग बनाया है,जिन पर साहित्यकारों की रचनाओं के संकलित किया जा रहा है,यदि आप की भी कुछ ग़ज़लें/मुक्तक वहाँ होती तो ब्लॉग की सुंदरता बढ़ जाती.एक बार अवलोकन कर कुछ रचनाये भेजे जो आपके परिचय के साथ प्रकाशित की जायेगी .आपके पेज पर बहुत सारे उच्च कोटि की बेहतरीन ग़ज़लें/मुक्तक हैं,वहाँ से भी संकलित की जा सकती है...एक बार अवलोकन करे.आप लोगो जैसे साहित्यकारों का योगदान चाहिए.
http://kavysanklan.blogspot.ae/
आपका स्नेहकांक्षी
राजेंद्र कुमार
आप की स्नेहिल दृष्टि को सादर प्रणाम. आप मेरे ब्लॉग raghunathmisra.blogspot.com से , मुझे सूचित करते हुए, बिना किसी परिवर्तन के कोइ भी रचना ले सकते हैं- अपने संकलन के लिए. सस्नेह. आप का साथी,
Deleteडॉ.रघुनाथ मिश्र 'सहज'
अंतर है आदमी मेँ -जानवर मेँ इक बडा,
ReplyDeleteइंसाँ के रूप मेँ न हम, खलेँ तो गज़ल होती है...
सच कहा है ... मुक्कमल गज़ल तभी ही होती है ... उम्दा गज़ल ...
आभार मित्रवर - आप की स्नेहिल अभिव्यक्ति के लिए.
Delete-डॉ.रघुनाथ मिश्र 'सहज'