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Sunday, 26 May 2013

ताज़ा गज़ल्


बिछडे, हुए, ,मिलेँ, तो, गज़ल, होती, है.
खुशियोँ, के गुल खिलेँ, त गज़ल होती है.

वर्शोँ से हैँ, आलस्य के, नशे मेँ हम सभी,
पल, भर अगर हिलेँ तो गज़ल होती है.

होश मेँ आयेँ, अभी ,भी कुछ नहीँ बिगडा,
अब से सही चलेँ, तो गज़ल हो ती है.

जँगल- नदी- पहाड- डगर की रुकावटेँ,
ये हाथ गर मलेँ तो गज़ल होती है.

आसान नहीँ है, ये ज़िन्दगी बडी कठिन
,
हालात मेँ ढलेँ, तो गज़ल होती है.

अंतर है आदमी मेँ -जानवर मेँ इक बडा,
इंसाँ के रूप मेँ न हम, खलेँ तो गज़ल होती है.
- डा. रघुनाथ मिश्र

Monday, 20 May 2013

40 साल पुरानी गज़ल के चन्द शेर्

40 साल पुरानी गज़ल के चन्द शेर:

देश का जिसमेँ, सम्मान् हरगिज़ नही.
उसका अपना कोई मान, हरगिज़ नहीँ. 

मान- सम्मान, महफूज़ रखना सदा,
आज कल कोई, आसान हरगिज़ नहीँ.

देश रक्षा मेँ चाहे, ज़लालत सहेँ,
गर्व है इसमेँ, अपमान हरगिज़ नहीँ.
डा. रघुनाथ मिश्र
( मेरी पुस्तक- हिन्दी अंग्रेजी गज़ल संग्रह, 'सोच ले तू किधर जा रहा है' से

Sunday, 19 May 2013

एक बिल्कुल ताज़ा गज़ल्

गज़ल
000
क्या बनना है अगर आ गया, फिर चिंता की बात नहीँ.
परमारथ का भाव भा गया, फिर चिंता की बात नहीँ.

सोया पडा ज़माना सारा, कौन जगाये- प्रश्न ज्वलंत,
प्रश्न अगर सर्वत्र छा गया, फिर चिंता की बात नहीँ.

बनने की खातिर इक्ज़ुट हैँ, आपस मेँ सब ह्रिदय अगर,
तब बिगाड आंखेँ दिखा गया, फिर चिंता की बात नहीँ.

सुपरिणाम पाने के लायक, कर्म तहे दिल से कर डाला,
प्रतिफल फिर गहरा सता गया, फिर चिंता की बात नहीँ.

गीत खुशी के मचल रहे हैँ, बस अधरोँ तक आने को,
राज़ कोई गर ये बता गया, फिर चिंता की बात नहीँ.

है बस्ती खुश, हर बगिया मेँ,पुश्प-पत्र- फल सभी कुशल हैँ,
अंट-शंट सिरफिरा गा गया, फिर चिंता की बात्त नहीँ.
- डा. रघुनाथ मिश्र
09214313946

Friday, 17 May 2013

एक पुरानी गज़ल्



दोस्तो, एक पुरानी गज़ल, मेरी पुस्तक, 'सोच ले तू किधर जा रा है' ( हिन्दी- उर्दू गज़ल संग्रह) से आप को साझा कर रहा हूँ. आप की प्रतिक्रिया मुझे सम्बल देगी- मैन उसका तहे दिल से इंतज़ार करूँगा.(आप मेरे ब्लोग: raghunathmisra.blogspot.in) पर भी पधारा करेँ और मेरी रचनायेँ पध कर मुझ नौसुइक्जिये ब्लोगर का उत्साहवर्धन करने महती क्रिपा किया करेँ और उसे विकसित करने और जनोपयोगी बनाने मेँ अपने महत्वपूर्ण सुझावोँ से अमूल्य योगदान देँ)

गज़ल:

किसने लगायी आग और किस- किस का घर् जला.
मेरे शहर के अम्न पे कैसा क़हर चला.

क्या माज़रा है दोस्त, चलो हम पता करेँ,
इस बेक़सूर परिन्दे का, कैसे पर जला.

कुछ भेडिये गमगीन हैँ, इस खास प्रश्न पर,
कैसे खुलुस- ओ -प्यार मेँ, अब तक शहर पला.

किसकी ये साज़िशेँ हैँ, हिमाक़त ये कौन की,
विश घोल फज़ाओँ मेँ, चुरा जो नज़र चला.

कल शाम् हुए हादशोँ पे, हो चुकी बहस्.
है प्रश्न इसी दौ र का, आखिर किधर भला.
- रघुनाथ मिश्र्


Thursday, 16 May 2013

माँ पर एक मुक्तक्

"माँ की ममता. 
नहीँ इसकी समता. 
जग मेँ कहीँ भी, 
नहीँ यह तरलता".
- डा. रघुनाथ मिश्र्

गज़ल: सोच ले तू किधर जा रहा है


सोच ले तू किधर जा रहा है:
        000
सोच ले तू किधर ज रहा है.
एक अज़ूबी ड्गर जा रहा है.
किसका जादू हुआ है युँ हावी,
तुझको मीठा ज़हर भा रहा है.
होता फौलाद है आदमी फिर,
रेत सा क्योँ बिखर जा रहा है.
तोड सक्ता है पत्थर जो सिर से,
हाँफता क्योँ नज़र आ रहा है.
नफरतोँ के ज़हर घोल दिल मेँ,
प्रेम पर क्योँ क़हर ढा रहा है.
ज़िंस की भांति बिकने की धुन मेँ,
तुझमेँ  कैसा न असर अ रहा है.
बस बना झुंझुना दूसरोँ का.
बेवज़ह जी के मर जा रहा है.
        000
  - डा. रघुनाथ मिश्र
(मेरी पुस्तक, 'सोच ले तू किधर जा रहा है' - हिन्दी- उर्दू गज़ल संग्रह से)

             

            

गज़ल: है असली सुन्दरता भीतर्


                ग़ज़ल
है असली सुंदरता भीतर.
कर पैदा तत्परता भीतर.

कुदरत की रचना बहुरंगी,
हो तुझमें समरसता भीतर.

कुछ भी बना-न बन पायेगा,
कायम यदि बर्वरता भीतर.

इधर-उधर है जिसे ढूढता,
जग का पालनकर्ता भीतर.

कर विश्वाश मिलेगा समुचित,
अर्जित कर ले दृढ़ता  भीतर.

बाहर तों  लेना-देना बस,
इन्सां जीता-मरता भीतर.

क्या देगी यात्रा बाहर की,
अंतर्मुखी सफलता भीतर.

जीवन मरुथल पाजाये मधु,
खुद में भरे मधुरता भीतर.

पूरी उम्र खुशी की खातिर,
भटका बाहर-तड़पा भीतर.
        000
  - डा. रघुनाथ मिश्र्

      
 

Tuesday, 14 May 2013

रघुनाथ मिश्र की पुरानी चुनिन्दा गज़लेँ



डा. रघुनाथ मिश्र की पुरानी चुनिन्दा गज़लेँ.
              000
           गज़ल (1)
सोच ले तू किधर जा रहा है:
        000
सोच ले तू किधर ज रहा है.
एक अज़ूबी ड्गर जा रहा है.
किसका जादू हुआ है युँ हावी,
तुझको मीठा ज़हर भा रहा है.
होता फौलाद है आदमी फिर,
रेत सा क्योँ बिखर जा रहा है.
तोड सक्ता है पत्थर जो सिर से,
हाँफता क्योँ नज़र आ रहा है.
नफरतोँ के ज़हर घोल दिल मेँ,
प्रेम पर क्योँ क़हर ढा रहा है.
ज़िंस की भांति बिकने की धुन मेँ,
तुझमेँ  कैसा न असर अ रहा है.
बस बना झुंझुना दूसरोँ का.
बेवज़ह जी के मर जा रहा है.
        000
  - डा. रघुनाथ मिश्र

             गज़ल (2)
             मंज़र है
              000
प्रतिबन्धित आंसू और ज़ुल्म-ओ-सितम भरा मंज़र है.
मौत और हत्या मेँ, कर पाना मुश्किल अंतर है.
तर्क सटीक, बात सीधी, सब ठीक-ठाक होने पर भी,
खुले  ज़ुबाँ,  उससे पहले  ही, सीने  मेँ  खंज़र  है.
तेल दियोँ मेँ मिल जायेगा, यह विधिवत घोशित है,
रोज़-रोज़ लम्बी  क़तार, आता  न कभे  नम्बर है.

तर्क सही और लोग सही, फिर क्युँ छूट गये मुल्ज़िम.
प्रश्न किया उस दिग्गज़ से क्योँ, माई- बाप वही गुरुवर है.
अस्तित्वोँ पर हर पल, वह् क़ाबिज़्, अचरज फिर कैसा,
जारी रहना है सब युँ ही, जब तक आग दबी अन्दर है.
दन्द-फन्द, दकियानूसी, अफवाहेँ फलीँ- फलेँगी युँ ही,
जब तक चढी भेडियोँ पर, ये खाल धवल  खद्दर  है.
              000
 - डा. रघुनाथ मिश्र

           गज़ल (3)
           क्या करेँ.
            000
सितम   उनकी  आदत  है, क्या  करेँ.
अज़ीब ये नज़ाकत है, क्या करेँ क्या करेँ.
वे   महफूज़  हैँ   फिर, आग  लगा कर,
उन्हेँ   ये   रियायत  है, क्या      करेँ.
आदत है अपनी आज कल. तूफाँ से उलझना,
इसमेँ    ही   हिफाज़त     है, क्या   करेँ.

लागू  करायी  जाय, भेडियोँ    की सभ्यता,
ये    खास   हिदायत   है    क्या   करेँ.

बेफौफ  ज़ुल्म, साज़िशेँ, दहशतज़दा  माहौल,
ये    रंग -ए- सियासत  है,  क्या    करेँ.
             000
        डा. रघुनाथ मिश्र

            गज़ल (4)
           हम तलाशेंगे
             000
कितने  हो गये तबाह,  हम  तलाशेँगे
चश्मदीद   कुछ  गवाह,   हम  तलाशेँगे.
ठिठुर रहे होँ सर्द  रात मेँ, असंख्य  जहाँ,
वहीँ   पे  गर्म   ऐशगाह, हम   तलाशेंगे.

यहाँ ये  रोज़  भूख - प्यास - महामारी है,
वहाँ पे क्योँ  है वाह -वाह्,  हम  तलाशेंगे.
खुलूस-ओ-प्यार की, आब-ओ-हवा ज़हरने मेँ
उठी  है  कैसे यह  अफवाह, हम  तलाशेंगे.
जिन  बस्तियोँ  मेँ,  हर खुशी,  बाँटी  उनमेँ,
ठहरी    है  क्योँ   कराह, . हम   तलाशेँगे. 

बहते   हुए  दरिया  का,  अचानक  युँ   ही,
ठहरा   है   क्योँ   प्रवाह,   हम   तलाशेँगे.
                 000
   -डा. रघुनाथ मिश्र
             गज़ल् (5)
      खुशी की तलाश जारी है
             000
खुशी की तलाश जारी  है.
हँसी  का  प्रयास जारी है.

जिस  घर ने अँधेरा बोया,
उसी  मेँ  उजास  जारी है.

कुछ को अजीर्ण है लेकिन,
शहर  मेँ  उपवास जारी है.

लोग   सी  देँगे जुबाँ लेकिन,

बोलने का  अभ्यास  जारी है.

टूट जाना था जिसे पहले,
वह क्रम अनायास जारी है

कितने हैँ वतन के सौदागर,
ऐसा  एक  कयास जारी है.
मिटाये नाम जो बदनाम कहकर्,
उसी  का  इतिहास  जारी   है.
आज़ादी  के  तमाम  वर्शोँ  मेँ.
आज़ादी  की  प्यास  जारी  है.
       - डा. रघुनाथ मिश्र
( मेरी पुस्तक, 'सोच ले तू किधर जा रहा है' हिन्दी, उर्दू गज़ल संग्रह से)

गज़ल्

गज़ल:
प्रतिबन्धित सांसोँ से, कैसे जी पाऊंगा.
असंख्य ज़ख्मोँ को, कैसे मैँ सी पाऊगा.

ज़हर घुला है पानी मेँ, तय हो जाने पर,
शुद्ध नहीँ उपलव्ध, उसे भी पी जाऊंगा.

मनहूसी इस क़दर है पसरी, जीवन मेँ,
इस स्थिति मेँ कहाँ, सीत- गर्मी पाऊंगा.गज़ल:
प्रतिबन्धित सांसोँ से, कैसे जी पाऊंगा.
असंख्य ज़ख्मोँ को, कैसे मैँ सी पाऊगा.

ज़हर घुला है पानी मेँ, तय हो जाने पर,
शुद्ध नहीँ उपलव्ध, उसे भी पी जाऊंगा.

मनहूसी इस क़दर है पसरी, जीवन मेँ,
इस स्थिति मेँ कहाँ, सीत- गर्मी पाऊंगा.

जहाँ चापलूसोँ को ही, मिलती साबाशी,
खुद्दारी से मैँ कैसे, तरज़ी पाऊंगा.

सिमट् रहा हो प्यार जहाँ, चीजोँ जैसा,
वह व्यापक् कैसे, खुद की मर्ज़ी पाऊंगा.

मैनेँ जीना सीख लिया, खुद के जीवन से,
इसी लिये तक़लीफोँ मेँ भी, जी पाऊंगा.

जहाँ चापलूसोँ को ही, मिलती साबाशी,
खुद्दारी से मैँ कैसे, तरज़ी पाऊंगा.

सिमट् रहा हो प्यार जहाँ, चीजोँ जैसा,
वह व्यापक् कैसे, खुद की मर्ज़ी पाऊंगा.

मैनेँ जीना सीख लिया, खुद के जीवन से,
इसी लिये तक़लीफोँ मेँ भी, जी पाऊंगा.

        - डा. रघुनाथ मिश्र्

क्षणिका

ज़िन्दगी राई है/ सकारात्मक सोच है अगर
पढा/ सुना/ एहसास किया है/ अनेकोँ ने
पसीना आता है लेकिन
लागू करने मेँ
नकारात्मक हो/ आलस्यवश/ आराम तलब हो जाने से
यही ज़िन्दगी पहाड बन जती है.
- डा. रघुनाथ मिश्र

Monday, 13 May 2013

गज़ल्

                 गज़ल

दुखाकर तुमने दिल मेरा, मुझे दिल तक हिलाया है.
मगर  है  शुक्रिया  तुमने मुझे, मुझसे  मिलाया  है.

अपेक्षा मेँ निराशा है, ये आखिर मेँ समझ पाया,
औलाद है शिक्षक, सबब ये तुमने, जब पढाया है.

हमने   सुना  है  और,  अनुभव  से  भी  सीखा  है-  सबब,
सिर्फ जड से ही, फुनगियोँ तक को, प्राणाधार मिलता है.



ढेर  विशयोँ  की  खुली हैँ, पाठशालायेँ,  जहाँ   मेँ  पर,
उनसे बढ कर, शब्द्वाणोँ से, असल है क्या, सिखाया है.

जो  नहीँ  सोचा था, सपनोँ  मेँ  कभी,मुमकिन  भी  होगा  वह्,
ज़िन्दगी का सच वही था सिर्फ, तुमने जो अब कर दिखाया है.
                       - डा. रघुनाथ मिश्र्







Saturday, 4 May 2013

सान्निध्‍य दर्पण: अरुण सेदवाल, कोटा

सान्निध्‍य दर्पण: अरुण सेदवाल, कोटा: एक बकरे की व्‍यथा यह सही है यदि वह नहीं करता आत्‍महत्‍या तो कर दी जाती उसकी हत्‍या क्‍योंकि सही ही था उसका मरना अरुण सेदवाल (1943-2...