'सहज' की अभी कही ताज़ा ग़ज़ल:
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घिर गया सूरज, कुहासे में, नज़र आता नहीं।
शून्य पारे में, असल का ताप, अब आता नहीं।
लोग करते हैं प्रतीक्षा, कैंसर में मौत की,
मांगते हैं मरण, जीना है उन्हें, भाता नहीं।
दूध की किल्लत, बड़ों में, चाहे जितनी हो भले,
दुधमुँहा भूखा मगर, है रोटियाँ, खाता नहीं।
हर कोई कितना भी चाहे, हो उसे हासिल खुशी,
उस तरफ बैठे-बिठाये, मार्ग पर जाता नहीं।
"जिंदगी है भूल का परिणाम", बेमानी समझ,
कम से कम मानव 'सहज' ही, जिंदगी पाता नहीं।
-डा.रघुनाथ मिश्र 'सहज'
'सहज' के अभी सृजित दो मुक्तक:
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(1)
बहुत दिनों में आज सवेरे, दिनकर निकला।
जन-गण-मन को लगा,अचानक, कष्ट गला।
खुश रह लें हर मौसम में, ये समझ भली,
क्यूं ना मनाएं उत्सव, जब पर्वत पिघला।
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(2)
अब चिड़ियों का शोर सुनो।
क्या कहती है भोर सुनो।
पड़े -पड़े जड़ हो जाओगे,
कहती जीवन -डोर सुनो।
-डा.रघुनाथ मिश्र 'सह्ज'
एक शेर 'सहज' का:
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चलते-चलते सीख लेंगे, है मुझे उम्मीद यह,
'सहज' ही पा जायेंगे सहयात्री जीने का ढंग।
-डा.रघुनाथ मिश्र 'सहज'
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