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Friday, 24 January 2014

परिचर्चा : इस बार का विषय : सृजनधर्मिता के समक्ष चुनौतियां 

संयोजक : डा. रघुनाथ मिश्र 'सहज'

प्रिय रचनाकार वन्धुओ,
यह स्थाई स्तम्भ शुरू करने के लिए प्रधान संपादक ,आदरणीया  शीला डोंगरे जी व् मेरे द्वारा फेस बुक, जो आज के दौर में सर्वाधिक सशक्त और अविलम्ब सम्प्रेषण का बेमिसाल माध्यम है, पर आप से सारगर्भित -संछिप्त ( अधिकतम ३० पंक्तियों में)- प्रतिनिधि और मात्र विषय पर ही केंद्रित ( अनावश्यक  भूमिका  और विषयांतर से परहेज सहित) विचार मुझे मेरे ई-मेल पते पर प्रेषित कर, उक्त परिचर्चा  में , अपनी जीवंत भागीदारी से,  साहित्य जगत-सवयम व पाठकों को लाभान्वित करने का सादर आग्रह किया गया था.मैं आभारी हूँ 'सार्थक नव्या' और प्रधान सम्पादिका शीला डोंगरे जी का, जिन्होंने मुझे यह महत्वपूर्ण दायित्व  सौंपा है.
इसे पूरा करने में सर्वग्राह्य - सर्वमान्य मानदंडों  की कसौटी  पर खरा उतरने के सार्थक प्रयासों/  मुश्तैदी में कोई कमी नहीं आने -देने का मेरा आप व पत्रिका से वायदा है और आप का पूर्ण सहयोग मुझे इस दायित्व निर्वहन में मिलेगा- ऐसा मेरा आत्मविश्वास है - अहम्  नहीं।
विषय पर विमर्श के लिए अभी तक सिर्फ रेखा जोशी  जी का मुझे मेल १९ को मिला है, मैं उनका अपनी व पत्रिका परिवार कि और से आभारी हूँ.10 -12  चुनिंदा वरिष्ट साहित्यकारों से उनके इन बॉक्स में लिख कर निवेदन किया था- सहयोग के लिए, लेकिन कुछ ने असमर्थता बताई- कुछ ने विषय पर पकड़ की  कमी बताई और कुछ लोगों से कोई जवाब नहीं मिला। आप को परिचर्चा में भाग लेने के लिए निर्देश हेतु तो नहीं वरन  'विषय प्रवर्तन' / विषय पर विमर्श का एक वातावरण बनाने हेतु अपने उदगार निम्नानुसार दे रहा हूँ:

विषय प्रवर्तन 

आदिकाल से ही साहित्य रचा जा रहा है.प्रागैतिहासिक/ वैदिक /पौराणिक /रीतिकालीन / अन्यान्य कालचक्रों की याद में जायँ और सृजनधर्मिता के इतिहास पर दृष्टि डालें तो हम विपुल साहित्य के अतुल्य भण्डार पर स्वयं को खड़ा पाएंगे।
गीता -रामायण-महाभारत-उपनिषदों-वेदों-पुराणों-पृथ्वीराज रासो-खुमानरासो-- कबीर-मीरा-सूर -तुलसी-कालिदास-मीरतकी - मिर्ज़ा ग़ालिब-अमीर खुसरो -रहीम-जायसी-कालिदास-बाल्मीकि-महापंडित राहुल सांकृत्यायन-लैब टालस्टाय-निकोलाई अस्ट्रोवस्की-बेंजामिन मोलाइस-मुक्तिबोध-धूमिल - महादेवी वर्मा-प्रेम चंद -आचार्य रामचंद्र शुक्ल-जयशंकर प्रसाद-सुमित्रानंदन पंत- डा. रामविलास शर्मा ( सूची के वरिष्ठताक्रम पर ध्यान न दें- सिर्फ उदाहरण के लिए आगे-पीछे, जो भी याद आये- दे दिया है) आदित्यादि के समक्ष भी चुनौतियां रही हैं और आज से कहीं बहुत ज्यादा। हर युग में कलम ने चुनौतियाँ देखीं-भोगीं-झेलीं और रचनाकार कहीं टूटे-कहीं गति धीमी हुई-कहीं वही उनकी ताकत बनीं और बड़े-बड़े कीर्तिमान बनाये।
लालटेन की  चिमनी पर छाये कार्बन को यदि साफ़ नहीं करें, तो उसके अंदर प्रज्वलित लौ, चिमनी के संकुचित- छोटे दायरे में घुट- सिमट कर रह जायेगी और निरंतर जल कर भी हमें बाहर  प्रकाश नहीं दे पायेगी।
बकौल युगप्रवर्तक स्वामी विवेकानंद , "विश्वविद्यालय-पाठशालाएं-वाचनालय-पुस्तकें-ज्ञान की  दीप्ति सब हमारे अंदर विद्यमान हैं -आवश्यकता है उन्हें बाहर निकलने की और यह हमें स्वयं ही करना होगा। "
लेखक स्वयं ही अपनी सृजनधर्मिता के मार्ग में अनेक बार, अपनी नकारात्मक सोच  और प्रदूषित मानसिकता के कारण,   अपने विरुद्ध - चुनौती के रूप में खड़ा पाता  है.इससे बड़ी चुनौती सम्भवतः नहीं होगी। स्वयं की  प्रदूषित मानसिकता के विरुदध स्वयं को लड़ना होगा।सोचको सकारात्मक दिशा में मोड़ना होगा।यथार्थ का सामना करना होगा। अच्छा लिखने/बोलने के लिए अच्छा पढना/ सुनना होगा। अनवरत लिखने-बोलने के अभ्यास में आना होगा। मस्तिष्क को नियमित (रेगुलेट) करना  होगा।  बुद्धि द्वारा मस्तिस्क को सकारात्मक मार्ग पर  चलने का निर्देश/ सुझाव देना होगा। 
लेखक के सामने चुनौतियाँ ही उसे आगे बढ़ने का कार्य करती है, उसे तोड़ती भी हैं और उससे नए-नए कीर्तिमान  भी  बनवाती  हैं। . लेखक को अपना सरोकार-प्रतिबद्धता-लक्ष्य निर्धारित करना होगा। 
प्रकाशन की  समस्या-प्रकाशन में धन की समस्या-प्रकाशकों द्वारा शोषण की  समस्या- गरीब लेखकों के समक्ष छपने और वितरण की  समस्या - श्रेष्ठ साहित्य नहीं होने पर पाठकों के अकाल की समस्या -दूसरों की  रचना खुद के नाम कर लेने की समस्या-राज्यों की साहित्य अकादमियों द्वारा श्रेष्ट साहित्यकारों के बजाय चाटुकारों के संरक्षण-संवर्धन -प्रोत्साहन की  समस्या - साहित्यकार द्वारा पुरस्कारों की होड़ में, पैसा देकर घटिया साहित्यसृजन की  ओर प्रेरित होना- ज्यादा लिखने के चक्कर में घटिया- निम्नस्तरीय लेखन की प्रवृत्ति आदि अनेक चुनौतियां निःसंदेह हमारे सामने होती हैं। . लेकिन इन्हीं के बीच -. इनका सामना करते हुए और अविचल-अविकल-निरंतर लेखन हमें कालजयी बनाता है। उपरोक्त लेखकों/विद्वानों/महापुरुषों/ के नाम हमें प्रेरित करते है। 
अन्यान्य समस्याएं हमारे सामने होती हैं, लेकिन उनसे घबड़ाकर पलायन कर जाना-टूट जाना- भटक जाना निदान नहीं। चुनौतियों को स्वीकार करना होगा। अपने रचना कर्म में निखार लाना होगा और तब स्तरीय लेखक के समक्ष ये टिकेंगी नहीं और बहुत सारे रास्ते खुलेंगे - रोशनी मिलेगी-हम आगे बढ़ेंगे- अपनी श्रेष्ठ सृजनधर्मिता और जुझारूपन के कारण। 
उपरोक्त उदगार को मेरा आलेख /भाषण/प्रवचन नहीं मानें . मैं एक अदना सा लेखक हूँ।  अपने दायित्वबोध के मध्यनज़र कुछ टिप्स देने की  कोशिश भर है, जिससे आप को इसमें भागीदारी का एक वातावरण मिल सके और अप अपनी भागीदारी इस स्तम्भ के लिए सुनिश्चित करेँ। 
हम आप के विचारों का स्वागत करेंगे  और प्रकाशित कर गर्वान्वित महसूस करेंगे। 
( इस बार हम यहाँ डा.रघुनाथ मिश्र 'सहज' के,  इस उदगार प्रकाशन के साथ ही,  इसी विषय पर आप की  जीवंत  भागीदारी का अगले अंक के लिए आग्रह करते हैं।  -शीला डोंगरे, प्रधान सम्पादक, सार्थक नव्या )
शुभेक्षु,
डा.रघुनाथ मिश्र सहज'
संयोजक ( परिचर्चा)
'सार्थक नव्या' 
                        





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