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Tuesday, 7 January 2014

पुस्तक समीक्षा सोच ले तू किधर जा रहा है समीक्षक-डा0 अशोक ‘गुलशन’

पुस्तक समीक्षा
सोच ले तू किधर जा रहा है
समीक्षक-डा0 अशोक ‘गुलशन’
‘सोच ले तू किधर जा रहा है’ जनकवि रघुनाथ मिश्र ‘सहज’ की हिन्दी-उर्दू ग़ज़लों का संग्रह है जिसे जनवादी लेखक संघ कोटा , राजस्थान द्वारा प्रकाशित किया गया है। इस पुस्तक की भूमिका कोटा के विद्वान् कवि एवं साहित्यकार श्री गोपाल कृष्ण भट्ट ‘‘आकुल’’ ने लिखी है। भूमिका में श्री मिश्र कीग़ज़लों को दस्तावेज माना गया है । दस्तावेज इसलिए कि श्री मिश्र स्वयं एक वरिष्ठ अधिवक्ता हैं तथा अनेक संस्थाओं से संबद्ध हैं और प्रायः अधिकाॅश आयोजनों में वह अध्यक्ष या मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किये जाते हैं। हालाॅकि सहज होते हुए भी वह विनम्रता का साथ नहीं छोड़ते और अपनी सादगी से लोगों को अपना मुरीद बना लेते हैं । अपने इस मोहक व्यक्तित्व-व्यवहार का प्रभाव वह अपनी रचनाओं में भी बनाये रखने में समर्थ हैं।
उनकी 50 ग़ज़लों के इस खूबसूरत गुलदस्ते में गरीबी, इन्सानियत, भूख, दर्द, खुशी, ग़म, देश, गाॅव, आजादी, जीवन, प्यार, हॅसी आदि के फूलों को सजाकर उन्होंने संग्रह को रोचक और मोहक बना दिया है। श्री मिश्र की रचनायें संदेशप्रद होती हैं और उनमें निष्क्रिय को सक्रिय बनाने का आहवान होता है जैसे जि़न्दगी का अर्थ समझाते हुए उनका यह मत्ला- कौन कहता है ? मजा, जोखि़म से डर जाने में है,
जिन्दगी का अर्थ ही, तूफाॅ से टकराने में है।--पृ0- 18
ग़ज़ल में मुहावरे का प्रयोग ग़ज़ल के मेयार को और उॅचा उठा देता है। इसका एक प्रयोग देखें-जोड़कर तिनके से तिनका, घर बनाये थे कभी,
आज वो तिनके बिखरकर, तीन-तेरह हो लिये।-पृ0-30
और आज की वर्तमान दुव्र्यवस्था को चुनौती देता उनका एक शेर भी काबिले-तारीफ है-मत करो कोशिश सुनाने की ,वे बहरे हो गये।
छीनकर लेने पड़ेंगे हक, चलो मिलकर चलें।-पृ0--31
आजाद देश की जो तस्वीर हमने देखने की सोची थी ,वह तस्वीर आज कुछ धुॅधली स ीनज़र आ रही है। यह सोचकर श्री मिश्र सहज भाव से अपना दर्द बयाॅ करने में नहीं चूकते। आखिर उन्हें एक शेर के माध्यम से कहना ही पड़ता है-
हमने सॅजोये थे कभी, खुशहालियों के ख़्वाब,
आॅखों में बाढ़ आज भी, अश्कों की कम नहीं।-पृ0--34
वक़्त किसी के वश में नहीं रहता। वह किसी अवसर की प्रतीक्षा भी नहीं करता। वह अपना काम करता रहता है इन्सान चाहे जितना सोचे ,इन्सान का सोचा कुछ नहीं होता । इसी बात को श्री सहज बहुत ही सहज भाव से अपने शेर के माध्यम से कुछ यूॅ कहते हैं-
वक़्त को चुनौती दे, बनते रहो अमर कितने,
जीवन को निवाले सा, वक्त ही निगलता है।-पृ0---41
इसी प्रकार एक से बढ़कर एक शेर कहकर श्री मिश्र ने अपने दायित्व को ’’सोच ले तू किधर जा रहा है’’में निभाने का पूरा-पूरा और सार्थक प्रयास किया है जिसमें उनकी तरफ से कोई कमी नहीं दिखती बस जरूरत है उनके कहे को अमल में लाने की जिसका दायित्व निभाना हम सबकी आवश्यक जिम्मेदारी है। अनेक उर्दू शब्दों के प्रयोग से इस संग्रह में उन्होंने अच्छे-अच्छे शेर कहे हैं और पाठकों की सुविधा की दृष्टि से अन्त में उन्होंने उर्दू शब्दों का हिन्दी रूपान्तर भी प्रस्तुत किया है जो उनका उर्दू भाषा के प्रति हृदय से लगाव होना सिद्ध करना हे।
सहज और सरल शब्दों का चयन कर उन शब्दों के माध्यम से पाठकों तक अपनी बात पहुॅचाने की कला के धनी श्री मिश्र से भविष्य में और भी अपेक्षाएॅ हैं जिन्हें पूरा करने का दायित्व निभाते हुए वह आज भी सक्रिय हैं। ईश्वर उनकी इस सक्रियता को बनाये रखने हेतु उन्हें दीर्घायु प्रदान करें। इन्हीं शुभ कामनाओं के साथ उत्त्म प्रस्तुति हेतु बधाई।
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कृति- सोच ले तू किधर जा रहा है डा0 अशोक ‘गुलशन’
ग़ज़लकार-रघुनाथ मिश्र
प्रकाशक-जनवादी लेखक संघ
कोटा, राजस्थान
संस्करण-प्रथम, 2008
पृष्ठ-80 ,मूल्य-50 रू0 

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