Followers

Thursday 25 October 2012

डा. रघुनाथ मिश्र के चुनिन्दा मुक्तक्

बहती हुई गंगा है, नहा लो, कुलांच लो.
माकूल ये समय है, निरीहोँ को फाँस लो.
अवसर  असर बनाने का फिर आये न आये,
ऐसे मेँ किसकी जान, काम की है जाँच  लो.
                                 00000
सर से बँधा हुआ कफन, जल्दी उतर गया.
मरने तलक् निर्भीक वह,इक पल मेँ डर् गया. 
द्रिढता बडी दिखी थी,भाशणोँ मेँ आग थी.
उम्मीद के प्रतिकूल, क़द वो छोटा कर गया.
                                00000
ढाई आखर, वेद - पुराण सिखा जाते हैँ.
जीवन के सारे रहस्य, खुलवा जाते हैँ.
प्रेम नहीँ तो जग- जीवन रीता-रेता सा,
ढाई आखर सुखद भविश्य दिखा जाते हैँ.
                             00000
चेहरे के पीछे इक है, अंजान् सा चेहरा.
दिखता बडा सुन्दर, लगे गूंगा, जंचे बहरा.
खामोश  हो जब चल पडे, अग्यात मक़सद पर,
मंजिल के नाम पर मिला, क़ातिल वहाँ ठहरा
                            00000
( साहित्यकार-5 मेँ छपे मेरे मुक्तकोँ मेँ से)


1 comment:

  1. मित्रो,
    आप से गुजरिश है कि आप यहाँ पधारा करेँ और एक ब्लोगर के रूप मेँ मैँ अभी शिशु हूँ- इस विचार्र से मुझे समय समय पर चेतायेँ और उचित मर्गदर्शन भी देँ.

    ReplyDelete