डा. रघुनाथ मिश्र 'सहज' के तीन चुनिंदा मुक्तक :
एक :
बादलों को ओस ने, चहुँ ओर घेरा है.
सूर्य की किरणों पे उसका, ख़ास घेरा है.
है मेरी शुभ कामना,आनंदमय ये दिन रहे,
हार जाए गम जो बरवश, दिल में ठहरा है.
०००
दो:
ओस की बूंदें चमकतीं, चिकने पात पर.
लोग भिड़ जाते हैं अक्सर, खोटी बात पर.
लाख समझाने की कोशिश, की गयी सदियों,
कुछ मगर कायम हैं अब भी, ओछी घात पर.
०००
तीन:
सूर्य रश्मियों का स्पर्श नहीं आया, घनघोर कुहासा
पर स्वागत है अंतरतम से, यह क़ुदरत का खेल-तमासा
इसी रूप में यदि चिंतन की, आदत में यदि आ जाएँ हम
छू न सकेगी हरगिज़ हमको, जीवकं भर कॊइ खीझ-हतासा
०००
-डा.रघुनाथ मिश्र'सहज'
एक :
बादलों को ओस ने, चहुँ ओर घेरा है.
सूर्य की किरणों पे उसका, ख़ास घेरा है.
है मेरी शुभ कामना,आनंदमय ये दिन रहे,
हार जाए गम जो बरवश, दिल में ठहरा है.
०००
दो:
ओस की बूंदें चमकतीं, चिकने पात पर.
लोग भिड़ जाते हैं अक्सर, खोटी बात पर.
लाख समझाने की कोशिश, की गयी सदियों,
कुछ मगर कायम हैं अब भी, ओछी घात पर.
०००
तीन:
सूर्य रश्मियों का स्पर्श नहीं आया, घनघोर कुहासा
पर स्वागत है अंतरतम से, यह क़ुदरत का खेल-तमासा
इसी रूप में यदि चिंतन की, आदत में यदि आ जाएँ हम
छू न सकेगी हरगिज़ हमको, जीवकं भर कॊइ खीझ-हतासा
०००
-डा.रघुनाथ मिश्र'सहज'
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