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Tuesday, 11 December 2012
Sunday, 2 December 2012
डा. रघुनाथ मिश्र के गीत- मुक्तक- दोहे- गज़ल
गीत्
है
गुलाब से प्यार जिसे, काँटोँ से न वो डरता है.
चुनौतियोँ
से बिन झिझके,स्व्कार उन्हेँ करता है.
जीवन क हर रंग, उसे भा जाता है.
दुख- सुख दोनोँ मेण जीना आ जाता है.
मंजिल मिलने का रहस्य पा जाता है.
जीने लायक भर वो खाता- पेता है.
जीवन
लक्श्यहीन हो तो हर पल जीता-मरता है.
है
गुलाब से प्यार जिसे, काँटोँ से न कवो डरता है.
कठिन् क्शणोँ का, जो करता, दिल से स्वागत्.
आघातोँ
से होता नहीँ , कभी
आहत् .
है
अपने ही हाथ
बनाना, हर हालत.
कर्तव्यो
से ही पूरी
होती चाहत्.
बात पते
की है, जैसा जो
करे वही भरता है.
है
गुलाब से प्यार जिसे, काँटोँ से न वो डरता है.
परहित
जिसने भी ,जीवन का
लक्श्य बनाया.
उंच-नेच-पाखनँड- बःऎड क़ॆ क़िळॆ ढ्हाया.
माना उसने
कभी किसी को नहीँ पराया.
संत-
मसीहा- पैगम्बर -ईश्वर कहलाया.
सद्कर्मोँ-
सद्भावोँ से, हर घाव सहज
भरता है.
है
गुलाब से प्यार जिसे, कांटोँ से न वो डरता
है.
तुलसी-सूर-रहीम-निराला और मीरा.
ओढ फकीरी थम्हा गये जग को हीरा.
मलिक मोहम्मद- कलिदास-टैगोर- कबीरा.
पिला गये ग्यानाम्रित जग को,पीर हरे हर पीरा.
है
केवल मानव ही, जैसा चाहे बन सक्ता है.
है
गुलाब से प्यार जिसे, कांटोँ से न वो डरता है.
00000
-डा. रघुनाथ मिश्र्
मुक्तक्
लूट्-पाट-
हत्यायेँ, देश तरक्की पर.
आहत बहनेँ- मायेँ, देश तरक्की पर.
आज़ादी का अर्थ, सार्थक करने को,
सच
मुच कर दिखलायेँ, देश तरक्की पर.
00000
डा.
रघुनाथ मिश्र्
दोहे
भेद-भाव
के रँग रँगी, क्या होगी तश्वीर.
है
मसला हल्का नहीन, बहुत बडा गम्भीर.
कर्महीन्
को हक़ नहीँ, कहलाये हक़दार.
समाधान
जिसमेँ नहीँ, वो कैसी सरकार.
सूद्खोर
के पास है, गिरवी हर इक सांस.
'जिन्दा
हूँ' अब भी कहो, हो कैसे विश्वास.
लघु-मध्यम
या उच्च के गया कोइ ना साथ.
अंत
समय जब शीश पर,खाली-खाली हाथ्.
जन्म-
मरण दोनोँ समय,है
नँगा इंसान.
धन-दौलत
और पदक पर,फिर कैसा अभिमान.
पल-पल
बढता जा रहा, बिना हिचक अपराध.
यह कैसा
जनतंत्र है,घुटी- घुटी हर् साँस.
भूख-प्यास
से त्रस्त जो, कहाँ ग्यान और ध्यान.
भोजन-
पानी की
जगह, बाँट् रहे विग्यान.
कर्ज़दार से
पूछिये, क्या है घर का
हाल्.
इक-इक पल उसको लगे, जैसे सौ-सौ साल्.
अब
न फँसेँगे जाल मेँ, समझ गये हैँ लोग.
00000
डा.
रघुनाथ मिश्र्
गज़ल
खीचती है हमेशा, अच्छाई को अच्छाई.
चलती ज्युँ हमेशा, संग- संग पर्छाई.
नज़रेँ होँ सिर्फ
मंजिल पे,
राह पे नहीँ,
सफलता की शर्त ये, आवश्यक बताई.
प्यार हर इक पल
को, बना देगा खुशनुमा,
क़ुदरत ने दिलोँ
मेँ, प्रेति युन बनाई.
दावा करते हैँ पल
मेँ ही,
सब् भाँप लेने की,
सन्दर्भित मसलोँ
पे कभी,
की नहीन पढाई.
कितना भी छिपाया, इतराये स्वयम सफल मान,
न्रित्त्य कर रही
है किंतु,
शीश पे सच्चाई.
जीवन भर् जिया
-भोगा,
सिर्फ एक नकलीपन,
असलियत से पूरी
उम्र,आंखेँ हैँ चुराई.
- डा. रघुनाथ मिश्र
डा. रघुनाथ मिश्र -गज़ल-मुक्तक- दोह
ग़ज़ल
जान
कर अनजान हो गए
जब
से वे महान हो गए
भागते
ही जा रहे अबाध
लक्ष्य
भी अनुमान हो गए
जो
जंचेगा वह करेंगे हम
अब
यही विधान हो गए
हर
सुबह फंसे कोई नया
यह
नए दिनमान हो गए
एकता
की पीठ में छुरा
जारी
फरमान हो गए
वोट
के लिए बड़े-बड़े
यज्ञ-पुन्य-दान
हो गए
चुनाव
सर पे है इसी लिए
सब
कठिन आसान हो गए
विशिष्ट
सख्शियत की मांग पर
आदमी
सामान हो गए
कल
तलक थे जो जमीन वे
आज
आसमान हो गए
०००
जन
कवि डा.रघुनाथ मिश्र
३-के-३०,तलवण्डी
कोटा-३२४००५(राज.)
मोबा.०९२१४३१३९४६
ए-मेल.
00000
ग़ज़ल
हमने
जोड़ा हृदय से हृदय को सदा
पास
आने से यूँ दर गयी आपदा
दी
दुहाई सदा जिसने कानून की
हो
रहा है उसी से दहन कायदा
हमको
दायित्व का भान हर पल रहा
दिल
में आया न नुकसान या फायदा
जो
है भीतर उजागर भी होगा कभी
होगा
निर्णय तदनुरूप बाकायदा
आशियाना
सुरक्षित हो ये लक्ष्य था
हो
गया अब वो पुख्ता व राहत्ज़दा
प्यार
से भारी ताकात कोई भी नहीं
सीख
लेने से होंगे न हम गमज़दा
-जन
कवि डा. रघुनाथ मिश्र
३-के
-३०,तलवण्डी,
कोटा-३२४००५(राज.)
मोबा.ओ९२१४३१३९४६
00000
मुक्तक्
तुम
सदा खुश रहो और सलामत रहो.
प्यारे-प्यारे
दिलोँ की अमानत रहो.
खुश
रहेँ तुमसे सब है यही जिन्दगी,
मेरी-
अपनी- सभी कि ज़मानत रहो.
डा.
रघुनाथ मिश्र्
0000
दोहे
दे
न सके यदि प्यार तो, दुख न भूल कर देय.
जीवन
मुश्किल से मिले, जान न यह कोइ पेय.
खोज
निकाले ज़हर यदि,खुद ही के दिल माँहि.
भौतिक
दुख नहिँ व्यापता,साधारण वह नाहिँ.
डा.
रघुनाथ मिश्र
0000
गीत्
डा. रघुनाथ मिश्र की चुनिन्दा गज़लेँ
डा.
रघुनाथ मिश्र की चुनिन्दा ग़ज़लें
मिरा अस्तित्व- मिरी सांस व धड़कन तुम हो.
ये
तरक्की -ये खुशी गम -ये उलझन तुम हो.
जब भी
भटकूंगा, अंधेरों में, कभी राहों में,
मैं
ये समझूंगा, मिरे हित में, वो अड़चन तुम हो
.
तुम्हारे प्यार
का असर, यकीँ दिलाता है.
मिरी
रुनझुन,मिरी झिक-झिक , मिरी तड़पन तुम हो.
धरती पे
नृत्य- नित्य, दिख रहे हों जहां
साफ,
ये मिरे दिल
की परख है, कि वो दर्पन तुम हो.
जीवन है इक
किताब, जिसे पढ़ रहे हैं लोग
खुशियों की
महक, दर्द का क्रंदन
तुम हो.
प्रेम-
दया- क्षमा पर , हमलों का है
ये दौर,
इन्हीँ
जुल्मो सितम के मान का, मर्दन् तुम हो.
जब-
जब पडी
आवाज, संकटोँ के दौर
मेँ,
गर्दन के
बदले देश, वो गर्दन
तुम हो.
-
जन कवि डा. रघुनाथ मिश्र.
ग़ज़ल
हमें
जरूरत प्यार की.
याद
आती है यार की.
जीतों
से खुश हूँ नहीं,
फ़िक्र
मुझे है हार की.
लम्बाई
बढ्ती गयी,
भूखे पेट
कतार की.
सुने
बिना गायब हुए,
प्रस्तुति
चंद अस्सार की.
खामोशी पसरी
गज़ब,
आंधी अत्याचार
की.
जो भी चाहो
कर डालो.
कुछ
न चले सरकार की.
०००
जन
कवि डा रघुनाथ मिश्र
ग़ज़ल
बार-बार
दिल को लगता है,बदल गए हो तुम.
निराधार
ही बचकाने में,दहल
गए हो तुम.
पूर्ण
किये बिन ज्ञान-प्रक्रिया,चढ़े शिखर लेकिन,
अधकचरे
आधार के चलते,फिसल गए हो तुम.
अपनी
ही धुन में और मद में,बिन जांचे-परखे ही,
सम्मोहित
अनजान डगर पे, निकल , गए हो तुम.
मन
ने चाहा- दिल ने रोका, मन की ही मानी लेकिन,
नासमझी में समझ
बना ली, संभल गए हो तुम.
सोच-समझ पुरुषार्थ
करो, विश्वास करो दिल
में,
फिर देखो
हर इम्तिहान में, सफल गए हो तुम.
गलत
फहमियों के चलते ही, दिल
पर मन हावी.
बस थोड़ी
ऊष्मा से हिम सा ,पिघल गए हो तुम.
भूखे-नंगे-आहत जन को,खूब
परोसा आश्वासन.
कथित-सुखद
उन वादों से खुद टहल गए हो तुम.
चंद पलों की
कुछ बातों में,दिल में उतर गए,
पेशेवर
जादूगर से, युँ बहल
गए हो तुम.
जन
कवि डा. रघुनाथ मिश्र
ग़ज़ल
लेखनी
है लेखनी,रोटी नहीं मेरी.
बात
बहुत बड़ी है,छोटी नहीं मेरी.
साफ़-साफ़
कह डाला, बस यूँ ही,
अब
है मुसीबत में, लंगोटी मेरी.
दिक्कत
न कभी कोई, पेश आई है,
कारण
कि लिखावट, बड़ी मोटी मेरी.
अकाल
मृतु ले गयी, उसकी माँ को,
रोई बडी, संवरी नहीं, चोटी
मेरी.
ठीक ही
आते रहे, परिणाम सब्,
नियत ना रही
, कभी खोटी मेरी .
देश की
धरोहर हैं, ये सब,
रुधिर,
माश , साँसें , बोटी मेरी.
फरेबियोँ
के साथ कभी भी निभी नहीं,
आदत है
यही दोस्तों, खोटी मेरी.
०००
जन
कवि डा. रघुनाथ मिश्र
संपर्क:
३-के-३ओ, तलवण्डी, कोटा-३२४००५
दूरभाष:
०७४४-२४३०२०१ मोबा:०९२१४३१३९४६
याहू
मेल पता:raghunathmisra@ymail.com
ग़ज़ल
है
असली सुंदरता भीतर.
कर
पैदा तत्परता भीतर.
कुदरत
की रचना बहुरंगी,
हो
तुझमें समरसता भीतर.
कुछ
भी बना-न बन पायेगा,
कायम
यदि बर्वरता भीतर.
इधर-उधर
है जिसे ढूढता,
जग
का पालनकर्ता भीतर.
कर
विश्वाश मिलेगा समुचित,
अर्जित
कर ले दृढ़ता भीतर.
बाहर
तों लेना-देना बस,
इन्सां
जीता-मरता भीतर.
क्या
देगी यात्रा बाहर की,
अंतर्मुखी
सफलता भीतर.
जीवन
मरुथल पाजाये मधु,
खुद
में भरे मधुरता भीतर.
पूरी
उम्र खुशी की खातिर,
भटका
बाहर-तड़पा भीतर.
०००
जन
कवि डा. रघुनाथ मिश्र
३-के-३०,तलवण्डी,
कोटा-३२४००५(राज.)
मोबा.०९२१४३१३९४६
ग़ज़ल
जान
कर अनजान हो गए
जब
से वे महान हो गए
भागते
ही जा रहे अबाध
लक्ष्य
भी अनुमान हो गए
जो
जंचेगा वह करेंगे हम
अब
यही विधान हो गए
हर
सुबह फंसे कोई नया
यह
नए दिनमान हो गए
एकता
की पीठ में छुरा
जारी
फरमान हो गए
वोट
के लिए बड़े-बड़े
यज्ञ-पुन्य-दान
हो गए
चुनाव
सर पे है इसी लिए
सब
कठिन आसान हो गए
विशिष्ट
सख्शियत की मांग पर
आदमी
सामान हो गए
कल
तलक थे जो जमीन वे
आज
आसमान हो गए
०००
जन
कवि डा.रघुनाथ मिश्र
३-के-३०,तलवण्डी
कोटा-३२४००५(राज.)
मोबा.०९२१४३१३९४६
ए-मेल.
00000
ग़ज़ल
हमने
जोड़ा हृदय से हृदय को सदा
पास
आने से यूँ दर गयी आपदा
दी
दुहाई सदा जिसने कानून की
हो
रहा है उसी से दहन कायदा
हमको
दायित्व का भान हर पल रहा
दिल
में आया न नुकसान या फायदा
जो
है भीतर उजागर भी होगा कभी
होगा
निर्णय तदनुरूप बाकायदा
आशियाना
सुरक्षित हो ये लक्ष्य था
हो
गया अब वो पुख्ता व राहत्ज़दा
प्यार
से भारी ताकात कोई भी नहीं
सीख
लेने से होंगे न हम गमज़दा
-जन
कवि डा. रघुनाथ मिश्र
३-के
-३०,तलवण्डी,
कोटा-३२४००५(राज.)
मोबा.ओ९२१४३१३९४६
00000
मुक्तक्
तुम
सदा खुश रहो और सलामत रहो.
प्यारे-प्यारे
दिलोँ की अमानत रहो.
खुश
रहेँ तुमसे सब है यही जिन्दगी,
मेरी-
अपनी- सभी कि ज़मानत रहो.
डा.
रघुनाथ मिश्र्
0000
दोहे
दे
न सके यदि प्यार तो, दुख न भूल कर देय.
जीवन
मुश्किल से मिले, जान न यह कोइ पेय.
खोज
निकाले ज़हर यदि,खुद ही के दिल माँहि.
भौतिक
दुख नहिँ व्यापता,साधारण वह नाहिँ.
डा.
रघुनाथ मिश्र
0000
गीत्
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